भगवान शालिग्राम और तुलसी के विवाह की कुछ पौराणिक कथाएँ हिन्दू धर्म के इतिहास में आज भी है
हिन्दू धर्म में तुलसी के पौधे का धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से बहुत ही ज्यादा महत्व हैं। माना जाता हैं की जिस घर में तुलसी का पौधा होता है उस घर में कभी सुख समृद्धि की कमी नहीं रहती। वैसे तो तुलसी से जुड़ी बहुत सारी कहानियां सुनने को मिलती होंगी लेकिन हिन्दू धर्म के पुराणों में जो कहानियां दी गयी हैं वो सर्वमान्य मानी जाती हैं क्योंकि पुराणों का हमारे जीवन में बहुत ही ज्यादा महत्त्व है।यहीं कुछ खास बाते जो तुलसी के बारे में बताई गयी है और कहाँ से तुलसी का अभ्युदय माना जाता है।
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शिव महापुराण के अनुसार पौराणिक समय में राक्षसों का बहुत ज्यादा आतंक हुआ करता था। उस समय दंभ नाम का कोई दैत्य था जिसके कोई संतान नहीं थी। वह बहुत बड़ा विष्णु भक्त था। अंत में दम्भ दुखी होकर शुक्राचार्य को अपना गुरु मानकर उनसे एक मंत्र सीखा और उसने पुष्कर सरोवर में आकर घोर तपस्या की उसकी तपस्या से खुश होकर भगवान् विष्णु ने दम्भ को संतान प्राप्ति का वरदान दे दिया। वरदान पाकर दैत्य दंभ बहुत प्रसन्न हुआ और कुछ समय बाद उसके पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र प्राप्ति से दम्भ बहुत खुश हुआ और उसने दावत दी। दम्भ ने अपने पुत्र का नाम शंखचूड़रखा। शंखचूड़ बड़ा होकर ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए उनकी तपस्या करने के लिए पुष्कर चला गया। पुष्कर में शंखचूड़ ने ब्रह्मा की घोर तपस्या की और उसकी तपस्या से खुश होकर ब्रह्मा ने उसको दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा जो शंखचूड़ ने कहा की वह हमेशा अजर-अमर रहना चाहता है कोई भी देवता उसको मार नहीं पाए।
ब्रह्माजी ने उसको ये वरदान दे दिया और कहा की वह अपने सौभाग्य के लिए बदरीवन में जो धर्मध्वज की पूर्ति तुलसी तपस्या कर रही है उससे जाकर विवाह कर ले। शंखचूड़ ने ऐसा की किया वह वहां से सीधा बदरीवन चला गया और सारी बात तुलसी को बताई तो तुलसी विवाह के लिए तैयार हो गयी और दोनों ने विवाह कर लिया। विवाह के बाद दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। वरदान पाने के कारण शंखचूड़ में अजर अमर होने का नशा हो गया और उसने दानवों, राक्षसों, किन्नरों, नागों, मनुष्यों, देवतों आदि सब पर विजय पा ली और सब को परेशान करने लगा और उसके आतंक से दुखी होकर देवता ब्रह्मा से के पास गए तो ब्रह्मा जी ने कहा की इस बाद का समाधान विष्णु भगवान् ही कर सकते हैं। सारे देवता और ब्रह्मा जी विष्णु के पास गए तो विष्णु ने कहा की शंखचूड़ का वध केवल शिव भगवान् के हाथों ही हो सकता है और कोई उसको हरा नहीं सकता। सब देवतों ने शिवजी के सामने जाकर इस अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की तो शिवजी मान गए और उन्होने अपने एक गण को शंखचूड़ के पास भेजा और कहलवाया की वह देवताओं के जीते हुए राज्य को वापस कर दे वरना उसको मुझसे युद्ध करना पड़ेगा। यह बात जब शिवजी के गण ने जाकर कही तो वह बहुत हँसा और बोला की में उनसे युद्ध करने के लिए तैयार हूँ।
इस बात से शिवजी बहुत क्रोधित हुए और उससे युद्ध करने के लिए चल पड़े। देवतों और दैत्यों में घमासान युद्ध हुआ लेकिन देवता दैत्यों को नहीं हरा पाए क्योंकि शंखचूड़ को अजेय रहने का वरदान था। अंत में जब शिवजी ने शंखचूड़ का वध करने के लिए अपना त्रिशूल उठाया तो आकाशवाणी हुई की जब तक शंखचूड़ के पास हरि कवच है और उसकी पत्नी का सतीत्व अखंडित है तब तक उसको कोई नहीं मार सकता। आकाशवाणी सुनकर भगवान् विष्णु ने एक बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करके शंखचूड़ के पास गए और उनसे कहा की वो कवच जो इतना सुन्दर वो मुझे दे दो तो शंखचूड़ ने बिना किसी झिझक के उसको वो कवच दे दिया वो कवच लेकर विष्णु शंखचूड़ का रूप बनाकर और वो कवच धारण करके उसके घर चले गए। विष्णु ने दरवाजे पर खड़ा होकर तुलसी को अपनी विजय की बात बताई तो तुलसी बहुत ज्यादा प्रसन्न हुई और उसकी आरती की। विजय की ख़ुशी से पागल तुलसी ने भगवान् विष्णु जो शंखचूड़ का रूप लेकर आया हुआ था उसके साथ रमण कर लिया जिससे उसका सतीत्व टूट गया और भगवान् शिव ने शंखचूड़का वध कर दिया। बाद में जब तुलसी को उसकी मौत का समाचार मिला तब पता चला की वह असली शंखचूड़ नहीं हैं।
और भगवान् विष्णु हैं। इस बात से तुलसी को क्रोध आया और उसने कहा की तुमने मेरे साथ छल किया हैं और मेरा सतीत्व नष्ट करके मेरे पति को मारा है अतः में तुमको श्राप देती हूँ की तुम पाषाण के बन के धरती पे रहो। तुलसी भगवान् विष्णु की बहुत बड़ीभक्त थी। इस बात पर भगवान् विष्णु बोले देवी तुमने बहुत समय से मेरी तपस्या की है में बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा यह शरीर एक नदी के रूप में परिवर्तित होकर अनंत काल तक बहता रहेगा और वह नदी गंडकी नाम से प्रशिद्ध होगी। तुम सुन्दर पुष्पों के रूप में एक पौधे में परिवर्तित हो जाओगी और तुम्हारा नाम होगा तुलसी जो सब वृक्षों में श्रेष्ठ होगा और तुम सदा मेरे साथ रहोगी। तुम्हारे श्राप को सत्य करने के लिए में पाषाण का शालिग्राम बनकर गण्डकी नदी के किनारे रहूँगा। अतः देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन भगवान् शालिग्राम और तुलसी का विवाह करवाकर शुभ कार्यों का शुभारम्भ किया जाता है। हिन्दू धर्म में मान्यता हैं की शालिग्राम और तुलसी का विवाह करवाने से अन्नत पुण्य की प्राप्ति होती है।