‘लिव-इन रिलेशनशिप में साथ रहने वाले कपल नहीं ले सकते तलाक’- हाईकोर्ट की अहम टिप्पणी

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कानून लिव-इन रिलेशनशिप को शादी के रूप में मान्यता नहीं देता है। जब दो व्यक्ति केवल समझौते के आधार पर एक साथ रहने का निर्णय लेते हैं, तो वे न तो विवाहित होने का दावा कर सकते हैं और न ही वे तलाक ले सकते हैं। केरल हाई कोर्ट ने मंगलवार को यह टिप्पणी की।

कानूनी मामलों पर रिपोर्ट करने वाली वेबसाइट ‘बार एंड बेंच’ के मुताबिक, जस्टिस ए मुहम्मद मुश्ताक और सोफी थॉमस की बेंच ने लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर यह टिप्पणी की. दोनों जजों ने कहा कि इस (लिव-इन रिलेशनशिप) को अभी कानूनी मान्यता नहीं मिली है। साथ ही उन्होंने कहा कि कानून केवल उन्हीं को तलाक की इजाजत देता है जो पर्सनल लॉ या स्पेशल मैरिज एक्ट के मुताबिक शादी के बंधन में बंधे हों।

में साथ रह रहे जोड़े

अदालत ने यह भी कहा कि विवाह एक सामाजिक प्रथा है, जिसे कानून द्वारा मान्यता प्राप्त है और यह समाज में सामाजिक और नैतिक आदर्शों को दर्शाता है। हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि ‘तलाक कानूनी शादी को खत्म करने का एक जरिया मात्र है।’ एक लिव-इन रिलेशनशिप को अन्य उद्देश्यों के लिए मान्यता दी जा सकती है, लेकिन तलाक के लिए नहीं। अदालत ने कहा कि पार्टियों को केवल तभी तलाक दिया जा सकता है जब वे विवाह के मान्यता प्राप्त रूपों के अनुसार विवाहित हों।

हाईकोर्ट के फैसले में कहा गया है कि तलाक को कानून के मुताबिक अपनाया गया है। कुछ समुदायों में गैर-न्यायिक तलाक को भी वैधानिक कानूनों द्वारा मान्यता प्राप्त है और तलाक के अन्य सभी रूप वैधानिक हैं।

हाई कोर्ट की बेंच ने लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले अलग-अलग धर्मों के एक जोड़े की याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियां कीं। उन्होंने स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत तलाक देने से इनकार करने वाले फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती दी थी।

इनमें से एक याचिकाकर्ता हिंदू है और दूसरा ईसाई है। दंपति ने 2006 में एक पंजीकृत समझौते के तहत पति-पत्नी के रूप में साथ रहने का फैसला किया। इस रिश्ते से कपल का एक बच्चा भी है। हालांकि, अब यह जोड़ा अपने रिश्ते को खत्म करना चाहता है और विशेष विवाह अधिनियम के तहत तलाक के लिए एक संयुक्त याचिका के साथ पारिवारिक अदालत का दरवाजा खटखटाया है। लेकिन अदालत ने उन्हें इस आधार पर तलाक देने से इनकार कर दिया कि उक्त अधिनियम के तहत उनकी शादी नहीं हुई थी, जिसके बाद दोनों ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।

याचिकाकर्ताओं के वकील ने कोर्ट में दलील दी थी कि जब दोनों पक्षों ने अपने रिश्ते को शादी का करार दिया था तो कोर्ट यह तय नहीं कर सका कि वे कानूनी तौर पर शादीशुदा थे या नहीं। इस पर उच्च न्यायालय ने कहा कि जब दो व्यक्ति केवल एक समझौते के माध्यम से एक साथ रहने का निर्णय लेते हैं और किसी मान्यता प्राप्त कानून के तहत बाध्य नहीं होते हैं, तो वे विवाहित होने का दावा नहीं कर सकते हैं और तलाक नहीं ले सकते हैं।

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