‘सभी कामकाजी महिलाओं को मातृत्व लाभ का अधिकार’- हाई कोर्ट की अहम टिप्पणी
दिल्ली हाई कोर्ट ने गुरुवार, 24 अगस्त को कहा कि सभी गर्भवती कामकाजी महिलाएं मातृत्व लाभ की हकदार हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे स्थायी हैं या संविदा पर. उन्हें मातृत्व लाभ अधिनियम, 2017 के तहत राहत से इनकार नहीं किया जा सकता है।
न्यायमूर्ति चंद्र धारी सिंह की पीठ ने दिल्ली राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण (डीएसएलएसए) के साथ अनुबंध पर काम करने वाली एक गर्भवती महिला को राहत देते हुए ये टिप्पणियां कीं।
दरअसल कंपनी ने महिला को मातृत्व लाभ देने से इनकार कर दिया था. कंपनी ने कहा कि कानूनी सेवा प्राधिकरण में अनुबंध कर्मचारियों को मातृत्व लाभ प्रदान करने के लिए कोई खंड (प्रावधान) नहीं है।
याचिकाकर्ता की ओर से वकील चारू वली खन्ना अदालत में पेश हुईं. जबकि डीएसएलएसए की ओर से अधिवक्ता सरफराज खान ने दलीलें पेश कीं. कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि मातृत्व लाभ अधिनियम के प्रावधानों में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो कहता हो कि कामकाजी महिला को गर्भावस्था के दौरान राहत देने से रोका जाएगा. मातृत्व लाभ किसी कंपनी और कर्मचारी के बीच अनुबंध का हिस्सा नहीं है। यह उस महिला की पहचान का मौलिक अधिकार है जो परिवार शुरू करने और बच्चे को जन्म देने का विकल्प चुनती है।
जस्टिस सिंह ने कहा कि आज के दौर में भी अगर किसी महिला से उसके पारिवारिक जीवन और करियर ग्रोथ के बीच चयन करने को कहा जाए तो हम एक समाज के तौर पर असफल हो रहे होंगे.
बच्चा पैदा करने की आजादी एक महिला का मौलिक अधिकार है, जो देश का संविधान अनुच्छेद 21 के तहत अपने नागरिकों को देता है। इस अधिकार के प्रयोग में बाधा डालने वाली कोई भी संस्था और संगठन न केवल भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि सामाजिक न्याय के बुनियादी सिद्धांतों के भी खिलाफ है।
बच्चे के जन्म की प्रक्रिया के दौरान कई शारीरिक और मानसिक बदलावों से गुज़र रही महिला को अन्य लोगों के समान काम करने के लिए मजबूर करना सही नहीं है। यह निश्चित रूप से समानता की वह परिभाषा नहीं है जो संविधान निर्माताओं के मन में थी।